एक दौर ऐसा भी था… जब हीरोइनें भी दोहरी भूमिकाएं करने लगीं
हिंदी फिल्मों में दोहरी भूमिका के लिए हीरोइनों को बड़ा इंतजार करना पड़ा
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दोहरी भूमिका और बॉलीवुड पर बात ज़रूरी है। नरगिस 14 साल की उम्र में हीरोइन बना दी गई थी। हुआ यूं स्टूडियो सिस्टम टूटने और स्टार सिस्टम शुरू होने से फिल्में बनाना महंगा हो गया था। सितारे मोटी फीस लेने लगे थे। फिर नरगिस की फिल्म निर्माता मां जद्दनबाई के लिए फिल्में बनाना मुश्किल हो गया था।
जद्दनबाई की कंपनी के 22 लोगों के स्टाफ की तनख्वाह देने के लिए आखिर नरगिस को मैदान में उतरना पड़ा। नरगिस फिल्मों में आई और ‘मेला’, ‘बाबुल’ ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘मदर इंडिया’, ‘परदेसी’ जैसी फिल्में करके सिनेमा इतिहास में अमर हो गईं। नरगिस पहली स्टार हीरोइन थी ।
ख्वाजा अहमद अब्बास का जिक्र भी ज़रूरी है
अंतराष्ट्रीय स्तर के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास फिल्मों की समीक्षा लिखते थे। एक मशहूर निर्माता ने उनकी आलोचना से चिढ़ कर ताना मारा। कहा कि फिल्मी कहानियों का पोस्टमार्टम करना आसान है, कहानी लिखना कठिन। तब अब्बास ने फिल्मों की कहानियां लिखनी शुरू कर दीं। बॉम्बे टॉकीज के लिए उन्होंने ‘सुनहरा संसार’ लिखी।
बंगाल के अकाल पर उन्होंने ‘धरती के लाल’ (1946) का निर्देशन किया। राज कपूर के लिए ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’ और ‘हिना’ लिखी।
अब्बास ने अमिताभ बच्चन को फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ में हिंदुस्तानी बनाया था। यह अमिताभ की पहली फिल्म थी और राष्ट्रनिष्ठा पर थी। ख्वाजा अहमद अब्बास ने वी शांताराम के लिए ‘डॉ कोटनीस की अमर कहानी’ , चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ भी लिखी।
अमीर और गरीब के द्वंद्व को दिखाती उनकी लिखी ‘नीचा नगर’ पहली फिल्म थी, जिसे प्रतिष्ठित कान फिल्मोत्सव में ‘पाम डी ओर’ पुरस्कार मिला था।
नरगिस कायल थीं अब्बास की
नरगिस ‘आवारा’ के लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रतिभा की कायल थीं। वो चाहती थीं कि अब्बास उनके लिए एक फिल्म में दमदार भूमिका लिखें। अब्बास ने उनके कहने पर ‘आवारा’ की कहानी को उलटा किया । उसे ‘अनहोनी’ (1953) बना दिया। कहानी का सार यह था कि इनसान पैदाइश से अच्छा या बुरा नहीं होता है।
बल्कि परवरिश और परिवेश उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं। अब्बास इस फिल्म के लेखक, निर्माता, निर्देशक थे। अब्बास और नरगिस ने ‘आवारा’, ‘अनहोनी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’ जैसी फिल्मों में काम किया। फिल्म अनहोनी में नरगिस ने पहली बार दोहरी भूमिका की थी। हिंदी फिल्मों में दोहरी भूमिका के लिए हीरोइनों को बड़ा इंतजार करना पड़ा।
दोहरी भूमिका फिल्मों में मजबूरी में निभाई गई थी
फिल्मों में पहली बार दोहरी भूमिका मजबूरी में निभाई गई थी। दादा साहेब फालके ने 1917 में ‘लंका दहन’ बनाई, तो सीता की भूमिका करने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। मजबूरी में फालके ने होटल के जिस रसोइए, बेयरे को (अण्णा सालुंके) राम बनाया था, उसी से सीता की भूमिका करवाई।
‘लंका दहन’ में राम और सीता किसी दृश्य में एक साथ नहीं होते। इसलिए आसानी से फालके ने सालुंके से दोनों भूमिकाएं करवा लीं। 1933 में शाहू मोडक को ‘आवारा शाहजादा’ में दोहरी भूमिका मिली। मोडक लोकप्रिय कलाकार थे। संत ज्ञानेश्वर की भूमिका निभाने के कारण महाराष्ट्र में उनका बड़ा सम्मान था। उन्होंने 57 फिल्मों में से 30 में कृष्ण की भूमिका निभाई।
1943 में ‘किस्मत’ में जब अशोक कुमार ने दोहरी भूमिका निभाई तो फिल्म मानो सिनेमाघरों से चिपक गई। लोगों की भीड़ इसे देखने के लिए टूट पड़ी। कलकत्ता के रॉक्सी सिनेमाघर में तो यह लगातार 187 हफ्तों तक चली। अशोक कुमार ने ही 1951 में बीआर चोपड़ा की फिल्म ‘अफसाना’ में जुड़वां भाई रतन और चमन की भूमिका निभाई।
शाहू मोडक द्वारा दोहरी भूमिकाओं की शुरुआत हो चुकी थी। उसके दो दशक बाद नरगिस की फिल्म ‘अनहोनी’ से चोटी की हीरोइन भी दोहरी भूमिकाएं निभाने लगीं। बाद में लगभग हर लोकप्रिय हीरोइन ने अपने करियर में दोहरी भूमिका निभाई।
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