नूरजहां | लखनऊ से लाहौर तक का सफर | अल्लारखी से नूरजहां तक का फ़साना

नूरजहां के बारे में तो सभी जानते हैं। उनकी मखमली आवाज़ और एक रूमानियत आज भी कायम है। लेकिन आज हम आपको अल्लारखी के बारे में बताएंगे। कैसे अल्लारखी ने नूरजहां तक का सफर तय किया।

नन्हीं अल्लारखी अपनी बड़ी बहनों ईदन और हैदर बांदी के साथ लाहौर के एक सिनेमाघर में फिल्म का शो शुरू होने से पहले नाच-गा रही थी। वह बड़े गुलाम अली खान से संगीत की शिक्षा ले रही थी और उसने मंच पर गाना भी शुरू कर दिया था। फिल्म शुरू होते ही अल्लारखी गाना खत्म कर दर्शकों में बैठ गई।

अल्लारखी की तमन्ना थी कि एक दिन वह मंच से उतर कर सिनेमा के परदे पर नाचे-गाए और लोग उसकी अदा और गाने सुनकर तालियां बजाएं। समय के साथ अल्लारखी की यह तमन्ना पूरी हुई और दुनिया ने उस नूरजहां को सिर-आंखों पर लिया, जिनकी आज जयंती है। जी हां आज ही के दिन अल्लारखी ऐसा नायाब तोहफा फिल्म इंडस्ट्री को मिला था।

लाहौर के फिल्म निर्माता दीवान सरदारी लाल अल्लारखी के हुनर को देखते हुए उसे लाहौर से कोलकाता ले आए और अल्लारखी की परदे पर नाचने-गाने की तमन्ना पूरी हो गई। उन दिनों कोलकाता में पंजाबी फिल्में भी बनती थीं।

अल्लारखी को भी एक पंजाबी फिल्म ‘पिंड दी कुड़ी’ में काम मिल गया और उसके गाने भी चले। कोलकाता में कुछ फिल्में करने के बाद अल्लारखी 1938 में वापस लाहौर लौट गई।

लाहौर में प्राण किशोर सिकंद (प्राण) के साथ अल्लारखी, जो नूरजहां, के नाम से काम कर रही थी, को ‘खानदान’ (1942) में हीरोइन की भूमिका मिली और इस फिल्म की सफलता ने मुंबई के निर्माताओं तक नूरजहां की शोहरत पहुंचा दी।

नूरजहां 1943 में मुंबई आ गई। इसी साल उन्होंने आजमगढ़ में पैदा हुए शौकत हुसैन रिजवी से निकाह किया, जो कलकत्ता के सिनेमाघर में प्रोजेक्टर पर सहायक फिर मदन थियेटर में संपादक और आखिर में ‘खानदान’ के निर्देशक बन गए थे। लाहौर से रिजवी के साथ ही नूरजहां मुंबई आई थीं।

नूरजहां का करिअर 1946 में बुलंदी पर पहुंचा महबूब खान की ‘अनमोल घड़ी’ से। इस फिल्म के हीरो सुरेंद्र थे, जो महबूब खान के साथ दस सालों से काम कर रहे थे और जिन्हें महबूब दूसरा केएल सहगल बनाना चाहते थे। हीरोइन सुरैया और नूरजहां थीं, जो गायिकाएं भी थीं।

‘अनमोल घड़ी’ में नौशाद के बनाए गानों -‘आजा मेरी बरबाद मोहब्बत के सहारे…’, ‘जवां है मोहब्बत हसीं है जमाना…’ और ‘आवाज दे कहां है…’ ने टिकट खिड़की पर धूम मचा दी। एकीकृत भारत में नूरजहां की यह सबसे बड़ी हिट फिल्म थी।

1947 में विभाजन हुआ, तो नूरजहां पाकिस्तान चली गईं। पाकिस्तान में उन्हें सरकार से लखनऊ में अपनी संपत्ति के बदले में लाहौर का शौरी स्टूडियो मिल गया। जिसको उन्होंने अपने निर्देशक शौहर शौकत हुसैन रिजवी के साथ मिलकर नया नाम ‘शाहनूर’ दिया और एक फिल्म शुरू कर दी।

मगर समझदार लोगों ने समझाया कि फिल्म पंजाबी में बनाओ तो चलेगी। लिहाजा फिल्म को बंद कर नई फिल्म ‘चन वे’ पंजाबी में बनाई। रिजवी को पंजाबी नहीं आती थी, लिहाजा फिल्म के निर्देशन में नूरजहां ने मदद की और इस तरह वह पाकिस्तानी की पहली महिला निर्देशक बन गईं।

एक के बाद एक फिल्मों में काम करते हुए नूरजहां पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री की महत्त्वपूर्ण हस्ती बनीं। युद्धकालीन स्थितियों में बरसते बम-गोलों के बीच सैनिकों की हौसला अफजाई के लिए रेडियो से लाइव गाने गाकर और सेना के जवानों के लिए फंड इकट्ठा करके नूरजहां ने पाकिस्तान के लोगों के दिलों को जीता। इसी के बाद उन्हें ‘मलिका ए तरन्नुम’ कहा जाने लगा था।

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