सरस्वती देवी जिनकी बनाई धुनें आज भी लोगों की पहली पसंद हैं
सरस्वती देवी ये नाम शायद आपने ना सुना हो लेकिन आपको बता दें कि फिल्म इंडस्ट्री में कभी इस नाम का बोलबाला था। सन 1853 में मुंबई में पारसी कारोबारियों ने पहली थियेटर कंपनी खोली। हुनर का यह कारोबार पारसियों को इतना रास आया कि देखते ही देखते 20 पारसी थियेटर कंपनियां खड़ी हो गई। संगीत के क्षेत्र में उन दिनों दो पारसी बहनों का काफी नाम था।
एक थी खुर्शीद और दूसरी थी मानेक। दोनों ही ऑल इंडिया रेडियो पर संगीत-प्रस्तुतियां देती थीं और लोग उन्हें होमजी सिस्टर्स के नाम से जानते थे। उनकी संगीत-प्रस्तुतियां श्रोताओं में खूब लोकप्रिय थी।
एक दिन इन दोनों बहनों का कार्यक्रम बॉम्बे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने सुना। वह चाहते थे कि उनकी कंपनी में दोनों बहनें आ जाएं। खासतौर पर खुर्शीद उनकी फिल्मों के संगीत विभाग की जिम्मेदारी स्वीकार कर लें।
वह दौर ऐसा था कि फिल्मों में काम करना हैसियत गिराने वाला काम माना जाता था। कई नामी गिरामी कंपनियां उन दिनों लोगों से आह्वान कर रही थीं कि पढ़े-लिखे घरानों से लोग फिल्मों में आए, ताकि इस कारोबार की प्रतिष्ठा बढ़े।
देश की पहली फिल्म अभिनेत्री कमला बाई गोखले ने जब दादा साहेब फालके की फिल्मों में काम किया तो समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया था। यहां तक कि खुद दादा साहेब फालके का बहिष्कार भी इसलिए कर दिया था कि वह फिल्म निर्माण सीखने इंग्लैंड गए थे और इसके लिए उन्होंने पानी के जहाज से समुद्र लांघा था।
इसलिए जब दोनों बहनों को बॉम्बे टॉकीज में काम मिला, तो पारसी समुदाय को यह पसंद नहीं आया। प्रतिष्ठित पारसियों का एक प्रतिनिधिमंडल हिमांशु राय से मिला और दोनों पक्षों ने मिल बैठकर एक फैसला किया कि दोनों बहनों के नाम बदल दिए जाएं।
इस तरह से खुर्शीद बन गई सरस्वती देवी और मानेक का नाम प्रभावती कर दिया गया। यह विसंगति ही थी कि देश की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाने वाले पारसी आर्देशीर ईरानी को समाज में प्रतिष्ठा मिल रही थी, लेकिन खुर्शीद और मानेक को अपना नाम बदलना पड़ रहा था।
1935 में ‘जवानी की हवा’ से सरस्वती देवी ने फिल्मों में संगीत देना शुरू किया। उनसे पहले नरगिस की मां जद्दन बाई फिल्मों में संगीत दे रही थीं। अगले ही साल अशोक कुमार और देविका रानी की ‘अछूत कन्या’ में दिया सरस्वती देवी का संगीत खूब लोकप्रिय हुआ।
खासकर इसका गाना मैं ‘वन की चिड़ियां बन के वन वन बोलूं रे…’। इसी साल सरस्वती देवी का बनाया ‘जन्मभूमि’ का गाना ‘जय जय जननी जन्मभूमि…’ के एक टुकड़े को बीबीसी ने अपने भारत से जुड़े कार्यक्रम की सिग्नेचर ट्यून बनाया। एक तरह से सरस्वती देवी बॉम्बे टॉकीज की एक सशक्त स्तंभ बन गई थीं।
कोई हमदम न रहा…’ (झुमरू) और ‘एक चतुर नार बड़ी होशियार…’ (पड़ोसन) गाने 1961 में किशोर कुमार ने गाए थे। मगर दो दशक पहले यही गीत उनके बड़े भाई अशोक कुमार क्रमश: ‘जीवन नैया’ (1936) और ‘झूला’ (1941) में गा चुके थे। अशोक कुमार से ये दोनों ही गीत संगीतकार सरस्वती देवी ने गवाए थे । सरस्वती देवी बॉम्बे टॉकीज की एक सशक्त स्तंभ रही थीं। आज उनकी 39वीं पुण्यतिथि है।
1943 में बॉम्बे टॉकीज से शशधर मुखर्जी और अशोक कुमार ने निकल कर फिल्मिस्तान स्टूडियो बनाया। ऐसी स्थिति में सरस्वती देवी को बाहर की छिटपुट फिल्मों में काम करना पड़ा। सरस्वती देवी के शास्त्रीय संगीत की मांग कम होने लगी थी।
आखिर सरस्वती देवी ने 1961 में राजस्थानी फिल्म ‘बाबासा री लाड़ली’ के बाद फिल्मों को अलविदा कह दिया और संगीत ट्यूशन देने लगीं। मानेक भी फिल्मों से दूर होकर लाइब्रेरियन बन गई। बावजूद इसके बॉम्बे टॉकीज के इतिहास में सरस्वती देवी का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।
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