शोले में जिस आर्दश गांव की कल्पना थी, 43 साल बाद भी वो सिर्फ कल्पना ही है

बेबाक | वरिष्ठ सिने पत्रकार संजीव श्रीवास्तव की कलम से

शोले में जिस आर्दश गांव की कल्पना थी, 43 साल बाद भी वो सिर्फ कल्पना ही है, 15 अगस्त, 1975 को रिलीज हुई ‘शोले’ में रमेश सिप्पी और सलीम-जावेद की जोड़ी ने जिस आदर्श गांव की झलक दिखाई थी, 43 साल भी इस देश में वह आदर्श गांव अब भी संभावना है या सपना कहना मुश्किल है।

गांव में पानी की टंकी है जिसकी प्राचीर से धर्मेंद्र ‘कूद जाऊंगा फांद जाऊंगा’ का पारसी ड्रामा करते हुये दिखाई देते हैं। कहना आसान नहीं कि टंकी में पानी था या नहीं अलबत्ता धर्मेंद्र के हाथों में दारू की बोतल जरूर थी, जिसके नशे में वह आसमान से ऊपर जा चढ़ा था। कहना मुश्किल है कि उस रामगढ़ में बिजली पहुंची थी कि या महज बिजली का खंभा आया था या कि पानी की टंकी का कनेक्शन घर-घर में पहुंचा था या नहीं।

लेकिन इसी गांव में दस्यु आक्रांता पीड़ित एक ठाकुर था जोकि बिना हाथों के ही दुर्दांत गब्बर सिंह के दुस्साहसों से दो–दो हाथ करने का दमखम रखता था। लेकिन बताना मुश्किल है कि उसी ठाकुर के टॉयलेट में आखिर कमोड किस तकनीक का था? जाहिर है डिजिटल इंडिया तब सपने से भी परे था। लेकिन जिज्ञासा जागती है कि जिस हवेली में जया बच्चन लालटेन की रोशनी कभी तेज तो कभी मद्धम करती हुई दिखाई देती हैं उस हवेली में बिजलीकरण और वॉशरूम तक पानी के नलों का नेटवर्क कैसा था?

हम चाहें तो ठाकुर के नौकर यानी रामलाल की ड्यूटी के दायरे का अनुमान लगा सकते हैं और उसके अक्सर जुगुप्सापरक भिन्नाये चेहरे को ताड़ सकते हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ‘शोले’ में निर्देशक और लेखकों ने जिस गांव और जीवनशैली को दिखाने का स्क्रीनप्ले बुना था वह आज की तारीख में भी आसमान से ऊपर का ख्वाब देखने जैसा ही है। जिस देश में दो दिन की बारिश में विकास की ऊंची मीनारें भरभरा जाती हैं वहां विकास के दावे हवाई किले जैसा ही है।

लेकिन यकीन मानिये ‘शोले’ में वह सबकुछ डींगें हांकने जैसा कत्तई नहीं था। और ना ही रमेश सिप्पी और सलीम-जावेद को कोई चुनाव जीतना था फिर भी उन्होंने शौचालय मुक्त और गंदगी मुक्त भारत के उस जमाने वाली उस फिल्म में दोगुनी विकास रफ्तार और चारगुना महिला सशक्तिकरण को दिखाया।

क्योंकि ‘शोले’ के रिलीज होने के कई सालों के बाद देश की ट्रेनों, हवाई जहाजों और मेट्रो में हमने महिला चालकों की तादाद को बढ़ते देखा है। तो अचरज है कि 1975 के जमाने में ‘बसंती’ डाकुओं के इलाके में भी तांगा चलाकर अपना और अपनी धन्नो का पेट पालती है। सच, ‘बसंती’ महिला सशक्तिकरण का रूप प्रतीत होती है। लेखक-निर्देशक की यह परिकल्पना बिना वोट के लालच की थी।
वैसे ‘शोले’ तब के भारत के भविष्य का मानचित्र ही नहीं प्रस्तुत करती अपितु सियासत की समकालीनता की तासीर भी बयां करती है – जब सिनेमा हॉल में ठाकुर का यह डायलॉग गूंजता है – “लोहा लोहे को काटता है।“

यकीन मानिये लोहा कभी ठंडा नहीं होता। किसी भी लोहे पर तबीयत से पत्थर उछाल कर तो देखिए-‘शोले’ भड़कने में देर नहीं लगती। लेकिन एक सवाल यह भी है कि 1975 के उस रामगढ़ की आज की तारीख में कैसी तस्वीर बची है? कैसा है देश के कोने कोने का रामगढ़? वहां मल्टीप्सलेक्स बना कि नहीं?

अक्षय कुमार की ‘शौचालय एक प्रेम-कथा‘ वहां लगी कि नहीं? जाहिर है अब वहां बंदूकधारी गब्बर सिंह का सीधा खौफ नहीं है लेकिन तहकीकात करने की जरूरत है कि इन रामगढ़ों में पानी की टंकी पहुंची या नहीं याकि यहां के किसानों, मजदूरों और बेरोजगारों तक विकास की छुक-छुक गाड़ी भी आई या नहीं?

ठाकुर की हवेली का क्या हाल है? रामलाल की संतति ने कितनी तरक्की की? ‘जय’ तो रामगढ़ की खुशहाली की भेंट चढ़ गया लेकिन ‘वीरू’ को कहीं नौकरी मिली कि नहीं? ‘बसंती’ के तांगे का टूटा पहिया फिर से जुड़ा कि नहीं? या कहीं इनके सामने गब्बर सिंह की कोई नई पीढ़ी तो नहीं आ गई?

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