शैलेंद्र जब राज कपूर का गाना अधूरा छोड़ कर चले गए, रोने लगे थे राज कपूर

शैलेंद्र को राज कपूर साहब अपनी आत्मा मानते थे। बात सन 1965 की है। राज कपूर साहब अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म “मेरा नाम जोकर” बना रहे थे। इस फिल्म के लिए राज साहब ने अपनी सारी सम्पति दांव पर लगा दी थी।

इसकी वजह यह थी कि राज साहब इस फिल्म की कहानी को लेकर बहुत संवेदनशील थे और उन्हें भरोसा था कि ये फिल्म दर्शकों को जरूर पसंद आएगी। उन्होंने इस फिल्म में अभिनय के लिए राजेन्द्र कुमार, सिमी ग्रेवाल, धर्मेन्द्र, मनोज कुमार, पद्मिनी, दारा सिंह जैसे नामी कलाकारों को शामिल किया था।

इसी फिल्म से राज साहब ने अपने पुत्र ऋषि कपूर का फिल्म एक्टिंग में डेब्यू कराने का फैसला लिया था। राज साहब ने तय किया कि उनकी ये फिल्म गीतों से भरपूर होनी चाहिए, इसके लिए उन्होंने गीतकार नीरज, शायर हसरत जयपुरी, गीतकार प्रेम धवन को गीत लेखन का काम सौंपा।

इसके साथ ही उन्होंने अपने मित्र गीतकार शैलेंद्र से भी फिल्म के कुछ गीत लिखने के लिए कहा। उस वक्त शैलेंद्र जी अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे थे। ठीक 4 साल पहले उन्होंने बतौर निर्माता अपनी पहली फिल्म “तीसरी कसम” बनानी शुरू की थी। मगर जिस फिल्म को 1 साल के भीतर बन जाना था, उसे बनने में 5 साल का वक्त लग गया।

इस समय की देरी के चलते फिल्म का बजट जो की 3-4 लाख रुपए अनुमानित था वो बढकर 22 -23 लाख तक पहुंच गया। शैलेंद्र बुरी तरह से कर्ज में डूब गये। उनके सभी साथी उनको छोड़कर चले गये। जब फिल्म अपनी रिलीज के नजदीक पहुंची तो फिल्म के डिस्ट्रिब्यूटर्स ने अपने हाथ पीछे खीच लिए और फिल्म डिब्बा बंद हो गई।

इसी दुख का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर हुआ। शैलेंद्र बीमार रहने लगे। 12 दिसम्बर 1966 की रात शैलेन्द्र जी को बेचैनी महसूस हुई औए वो रात भर न सो सके। 13 दिसम्बर की सुबह हुई तो उन्होंने इस बारे में अपनी पत्नी को बताया। शैलेंद्र जी की बिगड़ती हालत देखकर वो परेशान हो उठीं।

उन्होंने फौरन राज कपूर साहब को टेलीफोन लगाया और उन्हें शैलेंद्र जी के स्वास्थ्य की खबर दी। पूरी बात सुनकर राज साहब ने शैलेंद्र जी की पत्नी से कहा कि वो शैलेंद्र जी को डॉक्टर कपूर के क्लीनिक ले जाएं। वह डॉक्टर कपूर से बात कर लेंगे और सब कुछ ठीक हो जाएगा।

जब शैलेंद्र जी अपनी पत्नी के साथ डॉक्टर कपूर के क्लीनिक जाने के लिए निकले तो उनके मन में आया कि एक बार राज कपूर साहब से मिलते हुए चलें। शैलेन्द्र जी जब राज साहब के घर पहुंचे तो राज साहब ने उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछा।

थोड़ी देर की बातचीत के बाद राज साहब बोले “यार शैलेन्द्र तुम वो गीत” जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां” कब पूरा करोगे। यह सुनकर शैलेंद्र मुस्कुराए और बोले ” राज साहब, एक बार कल का खेल तमाशा निपट जाए तो मैं इस गीत को पूरा कर दूंगा। खेल तमाशे से शैलेन्द्र जी का इशारा राज कपूर साहब के जन्मदिन से था जो कि अगले दिन यानी 14 दिसम्बर को होता था।

इसके बाद शैलेन्द्र डॉक्टर कपूर के क्लीनिक पहुंचे जहां उन्हें भर्ती कर लिया गया। अगली सुबह जब शैलेन्द्र उठे तो उनका मन अपने मित्र राज कपूर से मिलने के लिए मचलने लगा। वो राज साहब को जन्मदिन की बधाई देना चाहते थे। मगर डॉक्टर्स की टीम इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। उस समय शैलेन्द्र जी की पत्नी के साथ राज कपूर साहब की पत्नी कृष्णा कपूर और गायक मुकेश जी अस्पताल में मौजूद थे।

राज साहब अपने हजारों प्रशंसकों के साथ आर के स्टूडियो में शैलेन्द्र जी के स्वास्थ्य के लिए दुआएं कर रहे थे। दोपहर बाद खबर आई कि शैलेन्द्र नहीं रहे। खबर मिलते ही राज साहब सब जन्मदिन के इंतजाम छोड़कर भागे भागे शैलेन्द्र जी के घर पहुंचे। तब तक शैलेन्द्र जी के शव को उनके घर के बाहर के हिस्से में रखा गया था।

आते ही राज साहब बदहवास होकर गिर पड़े और फूट फूटकर रोने लगे। आज जन्मदिन के दिन उनका सबसे प्यारा दोस्त इस दुनिया से चला गया था। राज साहब अक्सर कहते थे कि वो तो परदे पर नजर आने वाले सुपरस्टार राज कपूर का सिर्फ जिस्म भर हैं, इसकी आत्मा तो शैलेन्द्र हैं जो अपने शब्दों से राज कपूर को स्क्रीन पर जिंदा करते हैं।

शैलेन्द्र जी के चले जाने के बाद गीत “जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां” एक मुखड़े के रूप में पड़ा हुआ था। राज साहब ने कई गीतकारों से बात की मगर शैलेन्द्र वाला फ्लेवर कहीं न था। अंत में राज साहब ने शैलेन्द्र जी के पुत्र शैली शैलेन्द्र जी से इस गीत को पूरा करने की गुजारिश की।

शैली जी ने गीत को पूरा लिखा। ये शैलेन्द्र जी की विरासत ही थी, जो उनके पुत्र शैली शैलेन्द्र जी के लिखे गीत में वही असर पैदा हुआ था जिसके लिए शैलेन्द्र जाने जाते थे। आज उस गीत को सुनकर लगता ही नहीं है कि ये दो लोगों के ख्यालों से मिलकर बना है।

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