रफ़ी साहब, जिनकी आवाज़ की गुलाम सदियां थीं और रहेंगी
संगीतकार नौशाद अक्सर मोहम्मद रफ़ी के बारे में एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते थे। एक बार एक अपराधी को फांसी दी जी रही थी। उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने न तो अपने परिवार से मिलने की इच्छा प्रकट की और न ही किसी ख़ास खाने की फ़रमाइश।
उसकी सिर्फ़ एक इच्छा थी जिसे सुन कर जेल कर्मचारी सन्न रह गए। उसने कहा कि वो मरने से पहले रफ़ी का बैजू बावरा फ़िल्म का गाना ‘ऐ दुनिया के रखवाले’ सुनना चाहता है। इस पर एक टेप रिकॉर्डर लाया गया और उसके लिए वह गाना बजाया गया।
नौशाद और हुस्नलाल भगतराम ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उस ज़माने में शर्माजी के नाम से मशहूर आज के ख़य्याम ने फ़िल्म ‘बीवी’ में उनसे गीत गवाए।
ख़य्याम याद करते हैं, “1949 में मेरी उनके साथ पहली ग़जल रिकॉर्ड हुई जिसे वली साहब ने लिखा था। अकेले में वह घबराते तो होंगे, मिटाके वह मुझको पछताते तो होंगे। रफ़ी साहब की आवाज़ के क्या कहने! जिस तरह मैंने चाहा उन्होंने उसे गाया। जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई तो ये गाना रेज ऑफ़ द नेशन हो गया।”
मोहम्मद रफ़ी के करियर का सबसे बेहतरीन वक़्त था 1956 से 1965 तक का समय। इस बीच उन्होंने कुल छह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते और रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाले बिनाका गीत माला में दो दशकों तक छाए रहे।